थक गए थे चलते चलते, घर आ गए
देखते हैं दीवार-ओ-दर, किधर आ गए
हमारे काफ़िले को किसकी नज़र लगी
एक सहरा खोजते थे औ’ शहर आ गए
अपने खूँ से सींचा इस बाग को ताउम्र
क्यूं हर शजर के हाथ में पत्थर आ गए
हर शख़्स देखता है हिकारत से क्यू हमें
ये कैसी महफ़िल है, हम किधर आ गए
हमारे अहद का यहां नहीं है कोई मोल
खूब जानते थे हम, देखो मगर आ गए
क्या बताएं कैसे ऐश से रहते थे हम वहां
क्या कहें क्यूं छोड़ गांव, नगर आ गए
माना बहुत कठिन है जीना इस दौर में
फिर भी कुछ कर चलो, अगर आ गए