आज फिर
शाम के खेमे में
पंछियों के कुछ लश्कर लौटते हैं।
अपने बदन की
चोटिल आकांक्षाओं के घावों से
रिसते थकान के लाल रक्त को
आँसुओं से धोते हैं
उस पर स्नेह का मरहम लगाते हैं
कथाएँ सुनते-सुनाते हैं
अपने अपने पराक्रम की
दुश्मनों की व्यूह रचना की
और अपने खेत रहे साथियों
का शोक मनाते हैं।
धीरे-धीरे रात के बिछोने
उन्हें अपने आग़ोश ले लेते हैं।
हालाँकि वे जानते हैं
कल उन्हें फिर से
दिन के कुरुक्षेत्र का
सामना करना होगा
मगर …
चिंता के अलाव
एक एक कर के
बुझते जाते हैं
और वे
नींद की गर्म चादर
ढाँक के
सो जाते हैं।