भोर आयी

फिर मटमैला सूरज निकला
फिर धुँधली सी भोर आयी
चिड़ियाँ उड़ी फिर डाल छोड़
फिर आँगन बेला मुरझाई।

बाढ़ का पानी फिर आया
कल्लू की कुटिया फिर डूबी
कौवों ने दाना फिर खाया
खेतों में सरसों कुम्हलाई।

फिर बाट देखते सावन बीता
आया नहीं संदेसा कोई
मन सहरा-सम रीता-रीता
आँगन ना कोई परछाईं।

आस की माला फिर टूटी
ज्योत बुझी फिर दीपक की
मैं क्या रोऊँ किस्मत फूटी
जाने क्यों आँखें भर आयीं।

कौन जाने कब दिन फिरेंगे
क्या जाने कब दूर हो विरह
जाने कब वो हमसे मिलेंगे
कौन द्वार होगी सुनवाई।

 

दबी हुई इक चिंगारी

दबी हुई इक चिंगारी फिर जलायी मैंने
तेरी तस्वीर आँखों में फिर बसायी मैंने

सहरा-ए-दिल में ना उगेगी उम्मीद कोई
याद-ए-माज़ी आँखों से यूँ बहायी मैंने

कुछ इतना सुकून मिला मुझे तेरे जाने से
हर रात तारे गिन-गिन के बितायी मैंने

दाएम चुभन थी काँटों की मानिंद फिर भी
बर्दाश्त की तपिश-ए-अंगुश्त-ए-हिनाई मैंने

गले मिलके तूने बेचैनी बढ़ा तो दी थी मगर
गर्म बोसों से ज़रा सी ठंडक तो पाई मैंने

ग़म-ए-वक़्त-ए-रूखसत तो मंज़ूर था मगर
आज वस्ल में भी महसूस की जुदाई मैंने

तेरी बेवफ़ाइयों को भी तेरी नेमत जान कर
तेरी बेवफ़ाइयाँ बड़ी वफ़ा से निभाई मैंने

टुकड़ों में ज़िन्दगी – 4

आज हँसो खुल के
उदास है मुझसे
शायद मेरी ज़िंदगी

आज कुछ ना कहो
मुझे सुनायी दे रही है
टूटती मेरी ज़िंदगी

आज मूँद लो आँखों
हाँ! देख रहा हूँ मैं
बिखरती हुई ज़िंदगी

आज फेर लो मुँह
सँवरने लगी है मेरी
बेढंगी उदास ज़िंदगी

आज मत रोको मुझे
समेट रहा हूँ मैं अपनी
टुकड़े टुकड़े ज़िंदगी

 

टुकड़ों में ज़िन्दगी – 3

टुकड़ों में मिलती है
ज़िंदगी सबको हमेशा

छोटे नाज़ुक टुकड़े
जैसे समन्दर में खेलती
लहरों पे कोई
बुलबुला हो पानी का।

और पानी के बुलबुलों की
ज़ात क्या, बिसात क्या ?

क्या समन्दर को है ख़बर
कि उसकी लहरों ने
जाए हैं बुलबुले हज़ारों ?

लेकिन है ना ताज्जुब की बात
कि हर बुलबुला
रहता है अपनी
हस्ती के ग़ुरूर में
ख़ुद को समन्दर का खुदा समझता है।

गर इस बात की भनक
कभी लहरों को लगती
तो वह कितना हँसती?

ज़रा सोचो तो…

 

टुकड़ों में ज़िन्दगी – 2

जी चाहता है मेरा
फ़तह कर लूँ दुनिया
चढ़ जाऊँ एवरेस्ट पे
घूमूँ घंटों पेरिस की गलियों में
या बैठा रहूँ
किसी कॉफ़ी शॉप में
यादों की गर्माहट सेंकता।

जी चाहता है मेरा
लिखूँ कोई लम्बी ग़ज़ल
या फिर कोई ऐसा गीत
जिसे सुनके तुम ख़ुद-ब-ख़ुद
आ गिरो मेरी बाँहों में।

जी चाहता है मेरा
हर पल तुम्हारे साथ का
ना ख़त्म हो कभी
भर दूँ उस में वो रंग सारे
जो तैरते देखे हैं तुम्हारी आँखों में
जी लूँ सदियाँ

मगर…
ज़िंदगी शायद
टुकड़ों में ही मिलती है
हमेशा!

 

टुकड़ों में ज़िन्दगी – 1

हर भावना आहत
हर शब्द अकथित
हर द्वार पर एक दीपक
निस्तेज, अप्रज्ज्वलित

हर नगर की, हर डगर पे
बैठा एक मुसाफ़िर
शिथिल अंगों की जिसके
भाषा है पराजित

ढलते सूर्य का प्रकाश
होता जाता है मद्धम
आँखों में झाँकती निराशा
किंचित नहीं अप्रत्याशित

हृदय होता जाता है
मलिन, उदास, धूमिल
टुकड़ों में मिली ज़िंदगी
रही सदैव अपरिचित

 

होने से पहले

मैं भी क्या था होने से पहले
इक धुआँ था होने से पहले

उफुक में उजाला झाँकता था
क्या समा था होने से पहले

मुक़द्दर मेरा लिख रहा था वो
हाथ पसीना था होने से पहले

ख़्वाबों की दौलत मेरी थी
जहाँ मेरा था होने से पहले

ख़ुद को तनहा

ख़ुद को अक्सर यूँ तनहा पाता हूँ मैं
दीवारों से अपना सर टकराता हूँ मैं

इक आवाज़ पे कभी खिंचे आते थे जो
उन्हें बेसाख़्ता बे-सूद बुलाता हूँ मैं

घर के चिराग़ तो कब के जल बुझे
इक दिल है सो रात भर जलाता हूँ मैं

तुम क्या जानो अपनी ख़्वाहिशों को
करके दफ़्न कितना सुकून पाता हूँ मैं

मेरे साथ रक़्स करती है कायनात सारी
ज़िंदगी का कुछ ऐसे जश्न मनाता हूँ मैं

यक़ीं मानो अक्सर तन्हाई में आजकल
करके याद तुम्हें बेवजह मुस्कुराता हूँ मैं

 

जल गया मैं

चिराग़ की मानिंद जल गया मैं
पल भर में ये जहाँ बदल गया मैं

धुआँ चिता का फैला चार-सू
कबा-ए-जिस्म से निकल गया मैं

हसरतें कुछ यूँ बढ़ीं कि कल
ख़ुद से ख़ुद के लिए मचल गया मैं

अच्छा हुआ तुमने फेर ली नज़र
ज़रा सी ठोकर से संभल गया मैं

यूँ मुझे कौन मना सका ‘ओझल’
दिल रखने को उसके बहल गया मैं

 

सवाल पूछो

अपने सवालों के गर सच्चे जवाब चाहिए
खड़े होके सरे-आईना अपने आप से पूछो

मेरा मेयार शोहरत-ओ-सीरत से मत जानो
मेरी वफ़ा से, मेरी दोस्ती के नाप से पूछो

आशिकी की और पहचान भला क्या होगी
पूछो तो आतिश-ए-इश्क़ के ताप से पूछो

शहर में दंगे-फ़साद से जलता है कौन
बुझे चेहरों से, घरों से उठती भाप से पूछो

मायूसी क्या होती है, दर्द की इन्तेहा क्या है
औलाद को दफनाते हुए बाप से पूछो