ये मकां कब का बन गया होता

ये मकां कब का बन गया होता
जो मैं अहद से मुकर गया होता

वक़्त रहते आई याद ज़िम्मेदारियां
वगरना मैं सूली पे चढ़ गया होता

कौन राह देखता था, कौन था मेरा
जानता ये मैं तो घर गया होता

अच्छा हुआ मैंने मूंद ली आंखें वरना
दिन के उजालों से डर गया होता

रास आया मुझे भी एक तन्हा सफ़र
यूं भी कौन मेरी डगर गया होता

उसके कहने भर की देर थी ‘ओझल’
मैं सारी दुनिया से लड़ गया होता

 

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