बेहतर दिनों के

बेहतर दिनों के नए इम्कान दिखाते हैं
है अंधेरा बहुत चलो कोई दीप जलाते हैं

यारों तुम्हारे शहर में अब जी न सकेंगे
इंसाॅं नहीं कोई, यहां सब खुदा कहाते हैं

ये जो आज बुलंदियों पे फिरते हो इतराते
आओ तुम्हारी तुमसे पहचान कराते हैं

इक तुम कि खफ़ा हो जाते हो यारों से भी
इक हम कि दुश्मन को भी गले लगाते हैं

ये ऐसा जज़्बा है जो मर कर नहीं मिटता
अहले वफ़ा जां दे के भी अहद निभाते हैं

कलेजा चाहिए होता है मुस्कुराने में लोगों
अश्कों का क्या है, ये यूं ही चले आते हैं

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