किनारे किनारे ही चलते रहे हैं
ये कैसा सफ़र हम करते रहे हैं
तुम्हें ज़िन्दगी जब से माना है हमने
तुमपे तभी से हम मरते रहे हैं
जिन्हें खुद नहीं है इल्म ए हकीकी
वो सबको हिदायत करते रहे हैं
तरस आता है उन हसीनों पे जो
औरों की खातिर संवरते रहे हैं
कुछ ऐसे अज़ीम मिले हमको लोगों
आइने से भी जो डरते रहे हैं
कुछ वो भी हमसे नाराज़ से हैं
कुछ हम दूर से गुजरते रहे हैं