आंखों पे सियाह चश्मा चढ़ाए हुए
निकले हैं ज़माने से मुंह छिपाए हुए
कोई देखेगा तनहा तो समझेगा क्या
इसी सोच में बैठे हैं सिर झुकाए हुए
हो फुर्सत तो आना वक़्त-ए-रुख़सत मिलने
बड़े हसीन लगते हैं हम नहाए हुए
वो मानते हैं खुद को ज़माने का खुदा
हुए हैं चार दिन कुर्सी पे आये हुए
तन्हाई का अजब आलम है दोस्तों
बैठे हैं घर को मयकदा बनाये हुए