दबे पाँव फिर चली आती है रात
मीठी लोरियाँ गुनगुनाती है रात
तुम साथ नहीं हो मगर फिर भी
तुम्हारी यादों से बहलाती है रात
फिर कोई ख़्वाब चुभने लगा इनमें
फिर आँखों में भरी जाती है रात
सितारे भी लजाते फिरते हैं जैसे
उसके चेहरे पे मुस्कुराती है रात
ग़ौर से सुनोगे तो महसूस होगा
एक भूली दास्ताँ सुनाती है रात
ये कैसी हिजरत है ये कैसा वस्ल
सुब्ह होते ही ढल जाती है रात
सितारों के लश्कर साथ होते हैं
मगर फिर भी हार जाती है रात
अपनी करतूतों पे शर्मिंदा हो जैसे
यूँ अंधेरों में मुँह छुपाती है रात
मुझे अपनी क़िस्मत जैसी लगती है
जब तनहा कंपकंपाती है रात
कोई चिराग़ फिर मुस्कुराता है
फिर ज़रा बहल जाती है रात