दबी हुई इक चिंगारी फिर जलायी मैंने
तेरी तस्वीर आँखों में फिर बसायी मैंने
सहरा-ए-दिल में ना उगेगी उम्मीद कोई
याद-ए-माज़ी आँखों से यूँ बहायी मैंने
कुछ इतना सुकून मिला मुझे तेरे जाने से
हर रात तारे गिन-गिन के बितायी मैंने
दाएम चुभन थी काँटों की मानिंद फिर भी
बर्दाश्त की तपिश-ए-अंगुश्त-ए-हिनाई मैंने
गले मिलके तूने बेचैनी बढ़ा तो दी थी मगर
गर्म बोसों से ज़रा सी ठंडक तो पाई मैंने
ग़म-ए-वक़्त-ए-रूखसत तो मंज़ूर था मगर
आज वस्ल में भी महसूस की जुदाई मैंने
तेरी बेवफ़ाइयों को भी तेरी नेमत जान कर
तेरी बेवफ़ाइयाँ बड़ी वफ़ा से निभाई मैंने