डर!

डर!
डर के पैर नहीं होते
डर चुपके चुपके आता है
डर चारों तरफ होता है
मगर दिखाई नहीं देता
अस्फुट स्वरों में बोलता है
आपको सुनाई नहीं देता

डर!
डर के कई रूप होते हैं
इनका डर अंधेरी रातों में जागता है
बिस्तर के नीचे घात लगा के बैठता है
दीवारों पे साए की शक्ल लेता है
खामोशियों में चीखता है

डर!
उनका डर उनकी लाचारी में बसता है
भूख में, बीमारी में कराहता है
आंखों से टपकता है
बदन से रिसता है
उन्हें दिन भर घेरे रहता है

डर!
मेरा डर शहरों में रहता है
सड़कों पे दौड़ती गाड़ियों में
सड़क के आवारा कुत्तों में
सभ्यता की खाल ओढ़े लोगों में
मीठी मतलबी बातों में बोलता है

डर!
आपका डर आपके नारों में छुपा है
आपके झूठे वादों में से झांकता है
आपका डर आपकी भाषा में रहता है
आपकी इंसानियत की निरंतर बदलती परिभाषा में रहता है

डर!
डर हम सबके अंदर होता है
हमारे साथ साए की तरह चलता है
चैन के पलों में भी घेरे रहता है
डर सच्चा होता है
आपसे आपके बारे में बहुत कुछ कहता है
कभी गौर से सुनिए अपने डर को!

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