शब इक भूला हुआ ख़्वाब फिर देखा मैंने
बाद उसके बहुत देर तक तुझे सोचा मैंने
दास्ताँ हमारी भी मिसाल-ए-इश्क़ होती
क़सम थी तुम्हारी सो कुछ ना बोला मैंने
मुझे यक़ीं है इक आवाज़ पे तुम लौट आते
मैं ज़माने में उलझा था सो ना रोका मैंने
मैं जानता था उसके सामने टूट जाऊँगा
बहुत पुकारा किया वो दर ना खोला मैंने
मैं उसके सामने बैठा उसे ही सोचता रहा
ख़यालों में उसे बारहा खोया पाया मैंने