वो बारीक निगाहों से देखे जाना उसका
ज़र्द फूलों पे जैसे इत्र छिड़काना उसका
टूटी हुई आस के सहारे जी लेते हम मगर
हाय! कुछ दूर जाके पलट आना उसका
जीने का कोई सहारा तो छोड़ दिया होता
क्या ज़रूरी था यूँ ज़ुल्फ़ झटकाना उसका
अपनी हिम्मत पे गर नाज़ है तुझे तो सुन
गन्दी गलियों में, फटेहाल गुनगुनाना उसका
मैं एक जहाँ हार के बैठा था कि याद आया
वो भरी दुपहरी, नंगे पाँव मुस्कुराना उसका
‘ओझल’ यूँ भी जुदाई के सितम कम ना थे
और फिर कुछ दूर से पलट आना उसका