हर शब ख़्वाब में वही जादू मैं प्यारा देखूँ
जब नींद से जागूँ तो चेहरा तुम्हारा देखूँ
कब तलक सराबों से बहलाऊँ ख़ुद को
काश मैं भी कभी जश्न-ए-बहारा देखूँ
कहने को तो सिर पे खुला आसमाँ है मगर
जाने क्यूँ हर इंसाँ क़ैद-ए-असारा देखूँ
बेपरवाही लफ़्ज़ के म’आनी ना छीन ले सो मैं
सुनूँ ग़ौर से, हर बयान में इस्तिआरा देखूँ
इस बस्ती से अब उठता नहीं धुआँ तो क्या
राख के ढेर में मैं आज भी अंगारा देखूँ