सब्ज़ बाग़ उम्मीद के और ना दिखाओ मुझे
जाने वाले अपनी आँख से भी गिराओ मुझे
बेरुख़ी पे तुम्हारी, दिल मेरा यूँ भी छलनी है
सरे-बज़्म मुस्कुरा के और ना सताओ मुझे
मेरे पैरों में हैं कितनी बेड़ियाँ ज़िम्मेदारी की
मंज़िलों तुम ही बढ़ो, गले से लगाओ मुझे
मैं खो गया हूँ, अब और आवाज़ ना देना मुझे
यही बेहतर है शायद अब भूल जाओ मुझे
मैं तुमसे नहीं, ज़माने से ख़फ़ा हूँ मेरी जाँ
मगर चाहता हूँ फिर भी तुम मनाओ मुझे