दुख

दुख! थोड़ी देर ठहरो
ये क्षण भर का आना
ये ठिठकना, झिझकते हुए घुसना
ज़रा सी रौशनी को देखते ही
कहीं छुपना
पलटना
भाग जाना
ये तुम्हारी पहचान नही है।

तुम पे सदियों का कर्ज चस्पा है
मैंने तो खुद को मजबूत किया है
लेकिन ये वक़्त तुम्हें भी तो मिला है
ठहरने के लिए
बढ़ने के लिए
अंधेरा घना करने के लिए।

ऐ दुख! ज़रा कहो तो
फिर क्यूं इतनी जल्दी मात खाते हो
एक छोटी सी मुस्कान से हार जाते हो?
जाते हो पीछे परछाइयां छोड़
मगर ज़रा से बचपने से डर जाते हो?

मुझे ये तुम्हारा यूं हार जाना नहीं भाता
विपक्ष मजबूत ना हो तो
जीतने में मज़ा भी नहीं आता
सो ऐ दुख!
यूं दबे पांव ना जाओ
कुछ शस्त्र उठाओ
ललकार लगाओ
हुंकार भरो
मुझसे जी भर लडो
दुख। थोड़ी देर तो ठहरो।

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