एहतिजाज

अब क्या सोचें जला किसका घर
मिली महल को तो रोशनी बराबर

मान ली सूरज ने भी हार शाम तक
फैली है तारीकी ता-हद-ते-नज़र

तारीफ़-ए-साहिब-ए-शहर है लाज़मी
सी लो लब, रख लो दिल पे पत्थर

मैं बहुत छोटा हूँ मगर मेरी भी ज़िद है
दस्तार उतरने से सर कटाना बेहतर

हमारी आवाज़ को बंदूक़ों से दबाओगे
देख ली तेरी बहादुरी ओ सिकंदर

इसे मासूम बच्चों से भी नहीं हमदर्दी
बेहतर है जल जाए तुम्हारा शहर

‘ओझल’ की ग़ज़लों में जाने कहाँ से
भर आया है ज़माने भर का ज़हर

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