एक कोहरा घना सा है जहाँ मैं हूँ
चारों ओर परछाइयाँ हैं जहाँ मैं हूँ
मैंने ख़ुद को जला के कभी रौशनी बिखेरी थी
अब एक तारीक अँधेरा है जहाँ मैं हूँ
तमाम उम्र तुम्हारे वादे पे ऐतबार किया
ये फ़रेब अब भी जवाँ है जहाँ मैं हूँ
लफ़्ज़ों में जिसे बयाँ कोई कर ना सकेगा
एक ख़ूँख़ार दास्ताँ है जहाँ मैं हूँ
ख़ुद को महफ़ूज़ रखने का इरादा किया मैंने
अब हर ज़ख़्म नया है जहाँ मैं हूँ
एक ज़माने से उसकी कोई ख़बर नहीं ‘ओझल’
क्या मुझको ढूँढ रहा है जहाँ मैं हूँ