इक ज़रा सी लज़्ज़त-ए-दीदारी को

इक ज़रा सी लज़्ज़त-ए-दीदारी को
गँवा बैठे आज हम अपनी ख़ुद्दारी को

दुनिया के बदलते हुए तौर-तरीक़े देखे
हमने नहीं बेचा अपनी वफ़ादारी को

और क्या मिलना था हमें सुकूँ के सिवा
सो वही मिला निभा के ईमानदारी को

उसने इस बरस भी मजबूरन रोज़े रखे
घर में था ही कहाँ कुछ इफ़्तारी को

जो था राज़ आँखों ने बयान कर दिया
क्या कहें ऐसी ख़ुलूस-ए-गुफ़्तारी को

उसका घर सबसे पहले जला, मिला जवाब
क्या खूब ‘ओझल’ की शहरयारी को

 

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