जश्न कुछ यूँ मनाना यारों

जश्न मेरी मौत का कुछ यूँ मनाना यारों
दीप जलाना फूल सजाना जाम उठाना यारों

तमाम शहर ही जब दुश्मन हुआ अपना
क़िस्सा-ए-उल्फत फिर किसे सुनाना यारों

मेरी ख़ातिर कोई तोहमत ना लेना सर अपने
भीड़ में पहला पत्थर तुम्हीं उठाना यारों

जिए दोस्तों की ख़ातिर, मरे उसूलों के लिए
मेरे बच्चों को मेरी ये दास्ताँ सुनाना यारों

नफ़रत के दौर में भी सम्भाल रखी है मुहब्बत
शायद इसलिए दुश्मन है अब ज़माना यारों

ये ज़िंदगी है चार दिन, फ़क़ीर हो या शाह
वक़्त-ए-कज़ा चलेगा ना कोई बहाना यारों

 

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