कल शाम आंखों को मैंने सेहरा किया
औ’ उफ़ुक़ पे खुद को डूबते देखा किया
पहले बनाया हमने साए को हमसफ़र
फिर उम्र भर उस साए का पीछा किया
आज भी मसरूफ रहे कार-ए-जहाॅं में
यानी आज का दिन भी ज़ाया किया
इक नाकाम आशिक़ का दिल हो जैसे
सांझ का सूरज कुछ यूं दहका किया
किस्से तुम्हारे फिर से सुनाए यारों को
फिर दिल के ज़ख्मों को ताज़ा किया
आंखों को ज़िद्द थी उस मंज़र की सो मैं
हर महफ़िल हर जा उसे खोजा किया