अब तुम्हें और कितना यकीं दिलाऊँ
कह दो तो ज़हर खाऊँ औ’ मर जाऊँ
जो नक्श हैं दिल पर, नेमत हैं उसकी
मैं मासूम हर ज़ख़्म उसी को दिखलाऊँ
लगाऊँ आग अपने ही नशेमन को मैं
बा’द उसके बर्बादियों का जश्न मनाऊँ
लकीरों से हारना लिखा था तक़दीर में
है ख़्वाहिश अपने हाथों से इन्हें मिटाऊँ
सर्द रातों में किसी की याद की चादर
ओढ़ लूँ अपने बदन पर, और सो जाऊँ
लो सुब्ह का सितारा भी दिखने लगा
तुम जो आँख मूँद लो, तो मैं घर जाऊँ
हर रोज़ निकलता हूँ जीतने दुनिया को
हर शाम अपने बच्चों से मैं हार जाऊँ
कौन समझा है किसी और का दर्द मगर
इक झूटी दास्ताँ से अपना जी बहलाऊँ