हीरा बन जाता है पत्थर से कोई
यूँ बदल जाता है छूने भर से कोई
हम देखते रह जाते हैं राहें सदियों
कभी यूँ भी जाता है घर से कोई
महक उठती हैं राहें ख़िज़ाँ में भी
मुस्कुराता जाता है जिधर से कोई
फिर उसकी दलील कौन सुनता है
जब गिर जाता है नज़र से कोई
बैठ जाते हैं थक-हार के जब और सारे
जू-ए-शीर लाता है हुनर से कोई
मेरी परवाज़ यहीं तक थी ‘ओझल’
अब मुझे बुलाता है शजर से कोई