कैसे इतने शिकवों का बोझ उठा पाते हैं लोग
बरसों के रिश्ते पल भर में तोड़ जाते हैं लोग
अपने घर की गिरती हुई दीवारों से बेख़बर हैं
दूसरों के उतरते रोगन पे तंज़ करे जाते हैं लोग
समझाते हैं ज़िंदगी के फ़लसफ़े एक दूजे को
ख़ुद इक छोटी सी चोट पे बिखर जाते हैं लोग
व्रत त्योहार, तीरथ करते, मंदिर मस्जिद जाते
भीख माँगते बच्चों पे तरस नहीं खाते हैं लोग
अपनी ज़हानत का दावा करते फिरते हैं मगर
नेता-बाबा के चक्कर में फँस ही जाते हैं लोग
देखे हैं कई हज़ार, मैंने परखे भी बहुत हैं मगर
‘ओझल’ सच बोलूँ समझ में नहीं आते हैं लोग