अपनी तक़दीर से ही मात खा रहा हूँ मैं
अपनी लकीरों पे फिर झुंझला रहा हूँ मैं
मुझे यक़ीं है तुझे ख़ुशी होगी इसे सुनके
तेरी कहानी है जो आज सुना रहा हूँ मैं
तू पूछता है बाद तेरे मेरा हाल कैसा है
किस मुँह से कहूँ कि जिए जा रहा हूँ मैं
ज़रा सी चोट लगती है टूट जाते हैं लोग
यहाँ रेज़ा रेज़ा हो के मुस्कुरा रहा हूँ मैं
तुमसे कोई शिकवा करूँ भी तो कैसे करूँ
सो ख़ुद को ही सज़ा दिए जा रहा हूँ मैं
अंदेशा था मुझे अपनी नाकामयाबी का
मगर कोशिश फिर भी करता रहा हूँ मैं
आज मिले हैं पहली बार मगर लगता है
किसी ख़्वाब में ज़रूर तेरे पास रहा हूँ मैं
शाम गिर रही है, पंछी लौट रहे हैं ‘ओझल’
एक भूली हुई ग़ज़ल गुनगुना रहा हूँ मैं