तुझे रौशनी की थी तलब, मेरा तीरगी से था वास्ता
ना तेरे नसीब में था आफ़्ताब, ना मुझे रात मिल सकी
रही आंधियाँ मुक़ाबिल मेरे चिराग के रात भर
ना थमी उनकी जुल्मतें, ना मेरी आग बुझ सकी
ना जाने कितनी ख्वाहिशें दफ़्न दोनों दिलों में थीं
ना तू गले से लग सका, ना मेरी ज़ुबां ही खुल सकी
था फ़ासला अना का, हम दोनों के दरम्यान
ना तेरा गुरूर ही कम हुआ, ना मेरी आंख झुक सकी
रही उम्र भर शिकायतें मुझे अपने ही अक्स से
ना मिटा सका मैं आइना, ना ये शक्ल ही बदल सकी
वो जो महल था रेत का, कल बारिशों में बह गया
ना हाथ आया वो ख्वाब ही, ना नींद ही मिल सकी