गर तुमसे भी मेरा दर्द शिफ़ा नहीं होता
चलो माना मैंने मैं अब अच्छा नहीं होता
वक़्त पे वो इक आँसू जो छलक जाता
आँखों में फिर आज ये सहरा नहीं होता
डूब जाती हैं साहिल पे भी किश्तियाँ
हादसा हर बार सर-ए-दरिया नहीं होता
तारीख़ गवाह है शहंशाह हो या फ़क़ीर
वक़्त किसी का भी अपना नहीं होता
चार दिन जो तुम बिताते ईमाँ के साथ
वक़्त-ए-रूखसत ये तमाशा नहीं होता
ज़िंदगी की दौड़ में गिरना तो लाज़मी है
हारते हैं जिन्हे उठने का हौसला नहीं होता