मायूस चेहरा अपना छुपा भी नहीं सकते
क्या ग़म है किसी को बता भी नहीं सकते
कहने को तो सीने में बहुत राज़ दफ़्न हैं
मजबूर है इतने कि बता भी नहीं सकते
तेरे सामने ही बैठे हैं इसी सोच में गुम हम
क्यूँ कलेजे से तुझको लगा भी नहीं सकते
मुहाजिर जैसे रहते हैं अपने ही वतन में
हम दर्द-ए-इंतिक़ाल* जता भी नहीं सकते
क्या कहा? लकीरों का ही खेल है सारा?
तो क्या बल पेशानी पे ला भी नहीं सकते?
*दर्द-ए-इंतिक़ाल = pain of alienation