दो दुनियाँ हैं
एक अंदर, एक बाहर
दो दुनियाँ हैं
एक स्पष्ट, एक अदृश्य
दो दुनियाँ हैं
एक जीवित, एक मृत
दो दुनियाँ हैं
एक तुम्हारी, एक मेरी
एक और दुनिया है जो कभी हमारी थी
दो दुनियाँ हैं
एक अंदर, एक बाहर
दो दुनियाँ हैं
एक स्पष्ट, एक अदृश्य
दो दुनियाँ हैं
एक जीवित, एक मृत
दो दुनियाँ हैं
एक तुम्हारी, एक मेरी
एक और दुनिया है जो कभी हमारी थी
देखो तो मीठा फव्वारा लगता है
ज़ुबां कहती है ये खारा लगता है
नाम ले प्यार से कोई किसी का
तुमने जैसे हमें पुकारा लगता है
इस दिल की फितरत है यारों ऐसी
जो मिले खुल के हमारा लगता है
दिन भर गूंजे है शहर ये कानों में
शाम ढले सन्नाटा प्यारा लगता है
मैं भी हूं कुछ टूटा टूटा अंदर से
वो भी कुछ हारा हारा लगता है
तेरा ग़म दे कर है पाया मैंने तुझको
इस सौदे में क्यूं ख़सारा लगता है
भीड़ में रहता था, मगर सबसे जुदा रहता था
अजीब शख्स था, खुद से भी ख़फ़ा रहता था
बदल जाता था कैकेयी की मुस्कान के जैसे
ज़िद पे आ जाए तो अंगद सा अड़ा रहता था
प्यास ऐसी पी जाए सागर सारे नदियां सारी
ए’तिमाद ऐसा कि खुद में करबला रहता था
रक्स पर उसके अप्सराएं भी रश्क करती थीं
बैठ जाता था तो किसी बुद्ध सा रहता था
रूठ जाए तो नामुमकिन था मनाना उसको
मान जाए तो देर तक गले से लगा रहता था
टूटता रहता था चोटों से खुद अंदर अंदर
वक्त-ए-मुश्किल साथ सबके खड़ा रहता था
सर्द हवाएं भी जल उठती थीं छू कर उसको
थपेड़े लू के भी वो हँस के सहा करता था
फिर एक दिन वो गया तो हुआ यूं ओझल
जान पाए न हम कौन था, कहां रहता था
था जहां में हर शख्स से कोमल मैं
तीर-ए-निगाह से यूं हुआ घायल मैं
छू गए हाथ अनजाने में तुझसे मेरे
और देर तक होता रहा बेकल मैं
कोई तौर मिलन का निकलता कैसे
प्यासा सहरा तू, था सूखा बादल मैं
तू किसी तेज़ रेल सी गुजरती रही
हाथ हिलाता रहा जैसे सिग्नल मैं
काश तू होती पुजारिन की मटकी
काश होता गंगा किनारे पीपल मैं
किसी दीपक में तेल की मानिंद
साथ तेरे रहा और रहा ओझल मैं
आज फिर मैं तन्हा हूं, आ मुझे छू ले
मैं तेरा भूला लम्हा हूं, आ मुझे छू ले
भटकता रहा सदियों से इस सहरा में
इक उम्र से प्यासा हूं, आ मुझे छू ले
मेरी आंखों की नदी कब की सूख चुकी
मैं इक उजड़ा सहरा हूं, आ मुझे छू ले
यूं भूली है दुनिया, मुझको भी याद नहीं
किसका अधूरा नग्मा हूं, आ मुझे छू ले
मेरे गीतों को सुनकर खुश होते हैं सारे
मैं तेरे लिए ही गाता हूं, आ मुझे छू ले
इस घर के हर कमरे में यादें हैं तेरी
इन से भागता रहता हूं, आ मुझे छू ले
करती है मेरे सामने सजदे सारी दुनिया
मगर खुद से पसपा हूं, आ मुझे छू ले
मेरी लफ्ज़ों में शायद अब वो बात नहीं
मैं फिर भी कहता हूं, आ मुझे छू ले
औरों के हिस्से में चंदा, ख़्वाब औ’ जुगनू आते हैं
लेकिन हमारी आंखों को तो बस आंसू आते हैं
मुश्किल में नहीं देते साथ, वैसे तंज़ कसते हैं
ऐसे लोगों से पूछे कोई कौन हैं, वो क्यूं आते हैं
उस गली से निकलो तो आंखें मीचे मीचे रहना
उस गली में इक परी है, जिसको जादू आते हैं
दैर-ओ-हरम के झगड़ों में उम्र यूं तमाम न कर
चल मयकदे, जिसमें सिख मुस्लिम हिंदू आते हैं
बाद तुम्हारे इस घर का हाल ना पूछो कैसा है
दिन में सांप रेंगते हैं, रातों को बिच्छू आते हैं
इस दिल पे क्या गुज़रती है कोई बतलाए कैसे
जब उस शोख के शानों पर महके गेसू आते हैं
तेरी आंखों में शाम करते हुए
थक गया मैं ये काम करते हुए
रौशनी की थी तलब कुछ यूं
बुझ गए हम शाम करते हुए
क्या लुटाएंगे गुज़ारी जिन्होंने
ये उम्र ऐश आराम करते हुए
नाम है ज़रूरी मगर खुद को
ना खो देना नाम करते हुए
आंख खुली तो कैद में थे हम
दूसरों को गुलाम करते हुए
देख लेना चले जायेंगे इक दिन
काम सारे तमाम करते हुए
मज़ाहिया शायरी का अटेंप्ट
(जैसा कि कहते हैं, भूल चूक लेनी देनी) 😀
पैर पसारे ही थे, चादर हमारी फट गई
स्पीड थोड़ी सी ली तो गाड़ी पलट गई
जितनी मिली हमने गुज़ारी मयकदे में
जितनी कटी वैसे, बड़ी अच्छी कट गई
यूं तो हमारे वास्ते दुनिया भी कम रही
फिर भी दो कमरों में ज़िंदगी सिमट गई
तुझको छूने की कभी जुर्रत ना की मैंने
क्या सूझा तुझे, तू क्यूं ऐसे लिपट गई
तू याद में था जब तो कितना हसीन था
तू आया ख़्वाब में तो नींद ही उचट गई
अब कौन ऐसे पागल होता है
बादल फिर भी बादल होता है
राजा अपने महल को जाते हैं
बेचारा सैनिक घायल होता है
जंगल में इंसान मिलें न मिलें
इंसानों में भी जंगल होता है
देख के कमल को खुश ना हो
उसके नीचे दलदल होता है
होठों पर सजी होती है हँसी
बहता बहता काजल होता है
हमसे पूछो शाम ढले यारों
दिल कितना बोझल होता है
शहर हमारा जलता होता है
महल तुम्हारा रौशन होता है
पास आ जाती है जब मंज़िल
घर का रास्ता ओझल होता है
किसी को वक्त ने, कहीं हालात ने अजनबी बना रखा है
कहीं खामुशी, कहीं किसी बात ने अजनबी बना रखा है
गर चाहते मिलाना, तो मिला सकते थे हमको मगर
हमें जाने क्यूं हमारे जज़्बात ने अजनबी बना रखा है
हर धड़कते पत्थर को बनाना चाहते थे दिल जो
उनको उनके इन्हीं खयालात ने अजनबी बना रखा है
कितने वादे थे हमारे बीच वस्ल के, मगर आज रात
तुम्हारे दरवाज़े पे खड़ी बारात ने अजनबी बना रखा है
मिले थे पहले पहल हम ऐसी ही बरसात की रात
आज हम दोनों को इसी बरसात ने अजनबी बना रखा है