कर सकते थे तुम

ज़माने को खफा भी तो कर सकते थे तुम
मुझे अपना जहाँ भी तो कर सकते थे तुम

क्या हुआ जो तुम्हारा सफर नाकाम रहा
एक नई इब्तिदा भी तो कर सकते थे तुम

पहली कोशिश तुम्हारी बेसूद ठहरी तो क्या
जो किया दुबारा भी तो कर सकते थे तुम

मेरे जाने से गर इतना ही गुरेज़ था तुम्हें
मुझे इक इशारा भी तो कर सकते थे तुम

अपने ही दर्द को संभाले बैठे रहे बरसों
और को अच्छा भी तो कर सकते थे तुम

करना था

हमें अब की बार भी जलते पत्थरों से गुज़रना था
तक़ाज़ा था मुहब्बत का, सो तक़ाज़ा पूरा करना था

तुम्हें पता था तुम्हारी ख़ामोशी भी आग लगाएगी
ये इक इल्ज़ाम थी, सो इल्ज़ाम हमारे सर करना था

मैं पागल था जो इन हालात पे झुंझलाता रहा
और सब चुप थे, सो मुझे भी समझौता करना था

अपनी हक़-परस्ती का मोल चुकाने की ख़ातिर हमें
सूली चढ़ना था कई बार, सफ़र मक़तल का करना था

मेरे नसीब में तेरा प्यार, तेरी दोस्ती नहीं ना सही ‘ओझल’
मेरी क़िस्मत थी, मुझे इश्क़ एक तुझी से करना था

देखूँ

हर शब ख़्वाब में वही जादू मैं प्यारा देखूँ
जब नींद से जागूँ तो चेहरा तुम्हारा देखूँ

कब तलक सराबों से बहलाऊँ ख़ुद को
काश मैं भी कभी जश्न-ए-बहारा देखूँ

कहने को तो सिर पे खुला आसमाँ है मगर
जाने क्यूँ हर इंसाँ क़ैद-ए-असारा देखूँ

बेपरवाही लफ़्ज़ के म’आनी ना छीन ले सो मैं
सुनूँ ग़ौर से, हर बयान में इस्तिआरा देखूँ

इस बस्ती से अब उठता नहीं धुआँ तो क्या
राख के ढेर में मैं आज भी अंगारा देखूँ

बचा ले मुझको

ऐ काश मुझसे ही बचा ले मुझको
गिर रहा हूँ कोई तो सम्भाले मुझको

तेरी ख़ुशबू ने भुला दी तर्क-ए-वफ़ा
मैं चाहता हूँ तू फिर दगा दे मुझको

अपने होंठ मेरी आँखों पे रख के तू
ग़ुस्ताख़ निगाहों का सिला दे मुझको

मैं चिराग़ हूँ अपनी माँ की उम्मीदों का
ज़ोर किस आँधी में बुझा दे मुझको

मैं एक दरिया हूँ, मेरी मंज़िल है समंदर
तू समंदर है तो मेरा पता दे मुझको

लगाओ गले से

कोई दिल टूट जाए तो लगाओ गले से
कोई गर रूठ जाए तो लगाओ गले से

जो गले लगे उसे ना छोड़ो कभी मगर
कोई दामन छुड़ाए तो लगाओ गले से

मैंने ये सबक़ सीखा है बुद्ध से, ईसा से
कोई पत्थर बरसाए तो लगाओ गले से

ज़माने का क्या है, ये नाराज़ ही रहेगा
कोई दोस्ती बढ़ाए तो लगाओ गले से

ख़्वाब की ता’बीर ख़्वाब में नहीं होगी
कोई नींद से जगाए तो लगाओ गले से

हँसते चेहरों को अपने मुक़ाबिल रखो
कोई तुमको रुलाए तो लगाओ गले से

है तख़्त-ओ-ताज की तारीफ़ आम “ओझल”
कोई आईना दिखाए तो लगाओ गले से

मिलना

यक़ीं मानो बहुत बे-मज़ा है मियाँ ये मिलना
जैसे बर्फ़ीले मौसम में सर्द हवा से मिलना

दिल की बात दिल तक आख़िर पहुँच जाती है
जब मिल रहे हो तो शिकवे मिटा के मिलना

दिल किसी का बेवजह बुझा ना दें कराहें
मिलो किसी से भी तो मुस्कुरा के मिलना

वो सलीब कांधों पे उठाए था इस आराम से
जैसे नसीब में हो उसका ईसा से मिलना

आँखों में आज फिर ये दरिया की रवानी है
आज तय है किसी ख़ुश-आश्ना से मिलना

बाद मुद्दत के आईना देखा

बाद मुद्दत के आईना देखा
जाने किसका चेहरा देखा

अंदर से तो वो टूटा ही मिला
जो भी हमने हँसता देखा

शीश नगर में कल दिवाली थी
हर घर हमने जलता देखा

हक़ को आवाज़ देता कौन
सबको दस्त-बस्ता देखा

किससे ग़म बाँटूँ ‘ओझल’
जो भी देखा, ख़स्ता देखा

कोई

हीरा बन जाता है पत्थर से कोई
यूँ बदल जाता है छूने भर से कोई

हम देखते रह जाते हैं राहें सदियों
कभी यूँ भी जाता है घर से कोई

महक उठती हैं राहें ख़िज़ाँ में भी
मुस्कुराता जाता है जिधर से कोई

फिर उसकी दलील कौन सुनता है
जब गिर जाता है नज़र से कोई

बैठ जाते हैं थक-हार के जब और सारे
जू-ए-शीर लाता है हुनर से कोई

मेरी परवाज़ यहीं तक थी ‘ओझल’
अब मुझे बुलाता है शजर से कोई

तुम और मैं

तन्हाई में भी चहकते हुए तुम
सरे बज़्म तनहा होता हुआ मैं

सबसे हँस के मिलते हुए तुम
सबसे नज़रें चुराता हुआ मैं

मुझे देख के शर्माते हुए तुम
तुम्हें देख हाथ मलता हुआ मैं

गुलशन से महकते हुए तुम
ख़ुशबू से मदमाता हुआ मैं

छू के मुझे लजाते हुए तुम
दीवारों से टकराता हुआ मैं

दूर से नज़र आते हुए तुम
ख़ुद से दूर जाता हुआ मैं

मेरे साथ खिलते हुए तुम
तुम्हारे साथ इतराता हुआ मैं

ईद का चाँद होते हुए तुम
और दीवाली मनाता हुआ मैं

मुझसे नाराज़ होते हुए तुम
ज़माने भर से झगड़ता हुआ मैं

आज फिर बरसते हुए तुम
भीग के रक़्स मनाता हुआ मैं

मुझे छोड़ के जाते हुए तुम
इक चिता सा सुलगता हुआ मैं

कर लिया

एक लम्स से गुज़ारा कर लिया
तेरे ग़म को ही सहारा कर लिया

तुम्हारे होंठों से चुराया इक बोसा
अपने होंठों को शरारा कर लिया

तुम्हारी आँखों में ख़ुद को देखा
और जन्नत का नज़ारा कर लिया

आज फिर तेरी ख़ुशबू के सहारे मैंने
ख़ैर-मक़्दम-ए-बहारा कर लिया

दिल के बदले एक जहान लिया
या‘नी इस में भी ख़सारा कर लिया

इतनी रास आई शिकस्तगी-ए-दिल
हमने ये काम दुबारा कर लिया