एक आस

एक आस थी
जो दिल के क़रीब थी
होंठों को नसीब थी
थोड़ी अजीब थी
शायद फ़रेब थी

एक स्पर्श था
तुम्हारी हसीन बाँहों का
तुम्हारी ज़ुल्फ़ों का
तुम्हारी कांपती उँगलियों का

और अब…

एक एहसास
मेरे बदन में चलता है
मेरे लहू में बहता है
मेरी नसों में फड़कता है
मेरी आँखों में तैरता है
मुझे जगाता है
तुम्हारे पास बुलाता है

आस ही बेहतर थी…

 

बुनाई

मेरी आँखें
तेरी यादों की
रंगीन डोरियों से
आजकल रात दिन
स्वेटर बुनती रहती हैं।

कोई वादे से पलट गया क्या

यक़ीं का धुआँ छँट गया क्या
कोई वादे से पलट गया क्या

जिसकी ईंट-ईंट जोड़ी थी मैंने
वो घर बच्चों में बँट गया क्या

मेरे क़दम फिर लड़खड़ाए क्यूँ
कोई रस्ते से हट गया क्या

दिल-ए-बेक़रार आज सुकून से है
उसका आँचल सिमट गया क्या

ये क़िस्सा अंजाम तक पहुँचा कैसे
कहते-कहते ज़रा घट गया क्या

 

देखे जाना उसका

वो बारीक निगाहों से देखे जाना उसका
ज़र्द फूलों पे जैसे इत्र छिड़काना उसका

टूटी हुई आस के सहारे जी लेते हम मगर
हाय! कुछ दूर जाके पलट आना उसका

जीने का कोई सहारा तो छोड़ दिया होता
क्या ज़रूरी था यूँ ज़ुल्फ़ झटकाना उसका

अपनी हिम्मत पे गर नाज़ है तुझे तो सुन
गन्दी गलियों में, फटेहाल गुनगुनाना उसका

मैं एक जहाँ हार के बैठा था कि याद आया
वो भरी दुपहरी, नंगे पाँव मुस्कुराना उसका

‘ओझल’ यूँ भी जुदाई के सितम कम ना थे
और फिर कुछ दूर से पलट आना उसका

 

ज़ेहन से लिपटी यादें

घेर के शाम से बैठी हुई हैं
कुछ यादें ज़ेहन से लिपटी हुई हैं

अभी कुछ दूर है मेरा सितारा
ये तारीकियां क्यों सहमी हुई हैं

मेरी आँखों में न शोले न पानी
किन खयालात में डूबी हुई हैं

दर्द-ए-माज़ी और खौफ-ए-मुस्तक़बिल में
ये हसीं रातें क्यों उलझी हुई हैं

परवाज़ पे यूँ तो सबका है हक़
हर पाँव में बेड़ियाँ उलझी हुई हैं

मिलना

तुम…
चार कदम चले
चौखट तक पहुंचे
ज़रा सा ठिठके
फिर लौट गए.

और मैं…
मूक, मायूस
भरी आँखें लिए
खाली हाथ फैलाये
तुम्हारी राह देखता रहा.

 

एक बस हमीं को हौसला ना हुआ

एक बस हमीं को हौसला ना हुआ
वरना दुनिया में क्या क्या ना हुआ

वक़्त-ए-मर्ग जो मुस्कुरा भी ना सके
ये समझो ज़ीस्त का हक़ अदा ना हुआ

हमारे नाम को रोती है दुनिया
चलो शुक्र है क़त्ल ये जाया ना हुआ

दिखाई देती है दूर तलक तारीक़ी
शायद चांदनी को रास्ता ना हुआ

आज का दिन भी कुछ मायूस बीता
आज भी वोह हमसे आशना ना हुआ

हमराह होने से कोई हमसफ़र नहीं होता
हुजूम था साथ प’ क़ाफ़िला ना हुआ

 

तेरे हसीन लबों का अनमोल तोहफ़ा चाहिए

तेरे हसीन लबों का अनमोल तोहफ़ा चाहिए
अर्ज़-ए-मुहब्बत के जवाब में बोसा चाहिए

सुनते है वफ़ा के क़िस्से बोरिंग हो गए हैं
सो हमने तय किया इश्क़ में धोखा चाहिए

ईमानदारी का आलम है दफ़्तरों में कुछ यूँ
चाय-पानी के साथ-साथ समोसा चाहिए

सलाहियत-ए-सुख़न गर चाहिए ‘ओझल’
समन्दर-ए-ज़ीस्त में गहरा गोता चाहिए

 

आईना कैसे कैसे आज़माता है मुझे

आईना कैसे कैसे आज़माता है मुझे
हर सुबह नयी शक्ल दिखाता है मुझे

अभी ना जा मुझे यूँ छोड़ के मेरे दोस्त
तेरे बिन हर लम्हा तेरी याद दिलाता है मुझे

माना इक जुनून था, तेरे इश्क़ में कैसा सुकून था
अब ये दिलकश समाँ भी सताता है मुझे

है तुम्हारी यादों से हर कोना गुलज़ार
तुम्हारा ख़याल यकसा गुदगुदाता है मुझे

हर शाम तुम्हारी यादों में लिपटा सोचता हूँ मैं
हर सुबह आफ़ताब क्यूँ दूर ले जाता है मुझे

 

एक नया दस्तूर

एक नया दस्तूर कुछ ऐसा चलाया जाए
ख़ुद को ज़माने से बेहतर बनाया जाए

तसव्वुर-ए-जानाँ की बेख़ुदी में शायद
मुमकिन है फिर ख़ुद को पाया जाए

निगाहें मिलीं क़ातिल से तो दिल ने कहा
इल्ज़ाम ये भी अपने ही सिर उठाया जाए

किताब-ए-माज़ी के पन्नों में गुम होके
आज कोई गीत पुराना गुनगुनाया जाए

दिल को क्या हुआ है आज सुबह से ये
किसी अनजान डर से घबराया जाए

हसीनों को समझाओ अच्छा नहीं होता
एक आशिक़ को इतना तड़पाया जाए