हाय! कैसी हसीन ज़िंदगी है हमारी

हर लम्हा तकलीफ़ें, हर गाम दुश्वारी
हाय! कैसी हसीन ज़िंदगी है हमारी

हर पल फ़िराक़ का बीता जैसे इक उम्र
तुम बताओ तुमने कैसे एक उम्र गुज़ारी

कभी खाईं थीं तुम्हें ना भूलने की क़समें
और अब तो याद भी नहीं सूरत तुम्हारी

वो बच्चे जो तुम्हारी झिड़की से नहीं डरते
उनके सिर पे है परिवार की ज़िम्मेदारी

ज़िंदगी भर ‘ओझल’ के साथ थे चार यार
मजबूरी, बेचैनी, रुसवाई, लाचारी

 

यूँ ही दिल बहलाते जाते

यूँ ही दिल बहलाते जाते
झूठा यक़ीं दिलाते जाते
मुस्कुराते आँखों से और
सारे दीपक बुझाते जाते

मुझको फिर बहकाते जाते
सोयी उम्मीदें जगाते जाते
गुज़रते जब पास से तुम
मेरी ज़ुल्फ़ें सहलाते जाते

राज-ए-इश्क़ बताते जाते
दरिया-ए-अश्क़ बहाते जाते
टूटे दिल को सियूँ मैं कैसे
मुझको ये समझाते जाते

मुहब्बत भले छुपाते जाते
लेकिन फिर भी जाते जाते
भूली हुई ग़ज़ल मेरी कोई
मुझे ही फिर सुनाते जाते

मेरी सोई ख़्वाहिशों को फिर जगा दो

मेरी सोई ख़्वाहिशों को फिर जगा दो
मेरा ही कोई गीत तुम फिर गुनगुना दो

मेरे बदन में भरी हैं ज़माने की तारीकियाँ
एक लम्स से मेरी रात फिर जगमगा दो

एक उम्र से क़ैद हूँ मायूसियों के जंगल में
अपनी ज़ुल्फ़ों से मेरी साँसे फिर महका दो

‘ओझल’ को तनहाइयों से डर लगने लगा है
भूले से ही सही एक बार फिर मुस्कुरा दो

अजब इज़्तिराब है समन्दर के सीने में

इक तूफ़ाँ पल रहा है फिर मेरे सफ़ीने में
अजब इज़्तिराब है समन्दर के सीने में

अब ना तुम हो, ना मय है ना सपने
तुम्हीं कहो भला क्या मज़ा ऐसे जीने में

इतना शदीद दर्द मेरे दिल में है निहाँ
नहीं मिलता क़रार बुतख़ाने में, मदीने में

कल रात तुम्हारे ख़्याल से हुई बेतरतीब
ज़िंदगी सजा रखी थी कितने क़रीने में

मुझे नहीं मंज़ूर ये रिवायतें, ये सलीके
मज़ा जो है छलकाने में, वो कहाँ है पीने में

इक ख़ामोशी हर रिश्ते के दरमियान हो जैसे

इक ख़ामोशी हर रिश्ते के दरमियान हो जैसे
दिल-ए-नादाँ इस बात से हैरान हो जैसे

हर जश्न के मौक़े पे जाने क्यूँ महसूस हुआ
तेरी सुर्ख़ आँखे बड़ी बेईमान हो जैसे

तुम्हारे दिए ज़ख़्म सर-आँखों पे लिए मैंने
मेरे मंज़िल-ए-इश्क़ का आस्तान हो जैसे

तेरी बेरुख़ी भी कलेजे से लगायी हमेशा
निहा इसमें इश्क़ का इमकान हो जैसे

मेरी ज़िंदगी क़ाबिल-ए-बर्दाश्त बनाती
तुम्हारी आँखों में दबी मुस्कान हो जैसे

पहली मुलाक़ात में ऐसे गले मिलना उसका
हमारी सदियों पुरानी पहचान हो जैसे

महफ़िल में नज़र मिलते ही वो क़तरा से गए
‘ओझल’ की रुस्वाइयों से पशेमान हो जैसे

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आस्तान = a threshold – of palace, mausoleum etc.
इमकान = possibilities
रुसवाइयों = humiliations
पशेमान = embarrassed/ penitent

रोज़ाना नयी महफ़िलें सजाता है

वो रोज़ाना नयी महफ़िलें सजाता है
यक़ीनन तनहाइयों में सोग मनाता है

उससे कहो इतनी बेचैनी अच्छी नहीं
हर रात मेरे ख़्वाबों में आता-जाता है

एक वो ज़माना था दोपहर भर सोते थे
अब तो ये मुआ चाँद रातभर जगाता है

मेरे आँसुओं की रंगत ही दिखायी देती है
जब अपनी अंगुश्त-ए-हिनाई दिखाता है

ये अफ़वाह है झूठी वो भूल गया हमको
सुना है वो आज भी हमारी ग़ज़लें गाता है

अपनी झूठी तहरीरें कहलाता है मुझसे
और मेरी तारीख़ को भी झूठ बताता है

कल तक मुलाजमत के करता था दावे
जो आज ख़ुद को शहंशाह बतलाता है

सारे जहाँ का दर्द जिसके शेरों में हो
एक बस वो ही ‘ओझल’ कहलाता है

चाँद-तारे हमारे रतजगों को जानते हैं

चाँद-तारे हमारे रतजगों को जानते हैं
जुगनू हमारी सुर्ख़ आँखें पहचानते हैं

एक उम्र गुज़ारी है तुम्हारी यादों के सहारे
जैसे सुकून-ए-दिल पे ख़ंजर तानते हैं

सुना है इस दुनिया का कोई और खुदा है
हम हैं नादाँ कि मुहब्बत को खुदा मानते हैं

उकता गए है दिल की अफ़्सुर्दगी से ‘ओझल’
चलो गर्म सहराओं की ख़ाक छानते हैं

दबे पाँव फिर चली आती है रात

दबे पाँव फिर चली आती है रात
मीठी लोरियाँ गुनगुनाती है रात

तुम साथ नहीं हो मगर फिर भी
तुम्हारी यादों से बहलाती है रात

फिर कोई ख़्वाब चुभने लगा इनमें
फिर आँखों में भरी जाती है रात

सितारे भी लजाते फिरते हैं जैसे
उसके चेहरे पे मुस्कुराती है रात

ग़ौर से सुनोगे तो महसूस होगा
एक भूली दास्ताँ सुनाती है रात

ये कैसी हिजरत है ये कैसा वस्ल
सुब्ह होते ही ढल जाती है रात

सितारों के लश्कर साथ होते हैं
मगर फिर भी हार जाती है रात

अपनी करतूतों पे शर्मिंदा हो जैसे
यूँ अंधेरों में मुँह छुपाती है रात

मुझे अपनी क़िस्मत जैसी लगती है
जब तनहा कंपकंपाती है रात

कोई चिराग़ फिर मुस्कुराता है
फिर ज़रा बहल जाती है रात

कुछ ऐसे अपनी तक़दीर निखार लेता हूँ

कुछ ऐसे अपनी तक़दीर निखार लेता हूँ
इश्क़ से चंद नाकामियाँ उधार लेता हूँ

तुम्हारी यादों के जलते हुए जुगनुओं से
अपनी तारीक सी रातें सँवार लेता हूँ

तुम्हें पाने की ख़्वाहिश नहीं रही बाक़ी
हाँ! ख़्वाब में चुपके चुपके निहार लेता हूँ

इस उजड़े हुए दयार में ख़ुशबू के लिए
चन्द सूखी हुई कलियाँ बुहार लेता हूँ

तुम्हारी ज़ुल्मतें मुझे क्या डराएँगीं ‘ओझल’
मैं वक़्त-ए-मुसीबत माँ को पुकार लेता हूँ

एक कोहरा घना सा है जहाँ मैं हूँ

एक कोहरा घना सा है जहाँ मैं हूँ
चारों ओर परछाइयाँ हैं जहाँ मैं हूँ

मैंने ख़ुद को जला के कभी रौशनी बिखेरी थी
अब एक तारीक अँधेरा है जहाँ मैं हूँ

तमाम उम्र तुम्हारे वादे पे ऐतबार किया
ये फ़रेब अब भी जवाँ है जहाँ मैं हूँ

लफ़्ज़ों में जिसे बयाँ कोई कर ना सकेगा
एक ख़ूँख़ार दास्ताँ है जहाँ मैं हूँ

ख़ुद को महफ़ूज़ रखने का इरादा किया मैंने
अब हर ज़ख़्म नया है जहाँ मैं हूँ

एक ज़माने से उसकी कोई ख़बर नहीं ‘ओझल’
क्या मुझको ढूँढ रहा है जहाँ मैं हूँ