हसीन सी एक तड़प सीने में दबाए फिरता हूँ
जाने कौन सा बोझ कांधों पे उठाए फिरता हूँ
ईनाम-ए-रूखसत-ए-बाग़-ए-बहिश्त की ख़ातिर
इक गुनाह-ए-अज़ीम माथे पे लिखाए फिरता हूँ
तुम्हारे कहे को झूठ ना समझ सके कभी कोई
सो अपने आप को ना-मो’तबर बताए फिरता हूँ
ये ख़ौफ़ है किसी तौर ना आ जाए आराम मुझे
दिल के हर कोने में तेरी याद सजाए फिरता हूँ
अपने हाथों की लकीरों से मजबूर है हर शख़्स
सो मैं भी मुट्ठी में नाकामियाँ दबाए फिरता हूँ
अब बर्दाश्त नहीं होती जुदाई पल भर की भी
इक धुँधली तस्वीर से दिल बहलाए फिरता हूँ