बदन की ज़रूरतों में उलझा रहा हूं मैं
अपना मकसद हमेशा भूला रहा हूं मैं
काटी है मैंने ज़िंदगी बस दौड़ भाग में
फूलों की सेज पे अब सुस्ता रहा हूं मैं
भटका इस तरह, अपना पता नहीं मुझे
सारी दुनिया को रास्ता दिखा रहा हूं मैं
भूला हूं हर चेहरा इस शीश महल में
सबको आइना अब दिखला रहा हूं मैं
थे कठिन बहुत मस’अले रोज़गार के
सो सलीके दूसरों को सिखा रहा हूं मैं
कोई गिला नहीं मुझको तुमसे अब रहा
खुद कौन सा दूध का धुला रहा हूं मैं
जो खो गया उसको खोने का गम तो है
हां! दिल को फिर भी समझा रहा हूं मैं