रहता था

भीड़ में रहता था, मगर सबसे जुदा रहता था
अजीब शख्स था, खुद से भी ख़फ़ा रहता था

बदल जाता था कैकेयी की मुस्कान के जैसे
ज़िद पे आ जाए तो अंगद सा अड़ा रहता था

प्यास ऐसी पी जाए सागर सारे नदियां सारी
ए’तिमाद ऐसा कि खुद में करबला रहता था

रक्स पर उसके अप्सराएं भी रश्क करती थीं
बैठ जाता था तो किसी बुद्ध सा रहता था

रूठ जाए तो नामुमकिन था मनाना उसको
मान जाए तो देर तक गले से लगा रहता था

टूटता रहता था चोटों से खुद अंदर अंदर
वक्त-ए-मुश्किल साथ सबके खड़ा रहता था

सर्द हवाएं भी जल उठती थीं छू कर उसको
थपेड़े लू के भी वो हँस के सहा करता था

फिर एक दिन वो गया तो हुआ यूं ओझल
जान पाए न हम कौन था, कहां रहता था

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