रिश्तों का स्वाद

ये रिश्ते भी ना अजीब होते हैं
अलग-अलग स्वादों में मिलते हैं

बचपन के रिश्ते मीठे होते थे
मैं गुड्डू के घर सुबह से शाम तक खेला करता था
आंटी के हाथों से खिचड़ी खाया करता था
गुड्डू ग़ुस्सा तो होता था, पैर पटकता था
लेकिन फिर हँस के कहता था
“ठीक है! पहले तू बैटिंग कर ले”

गरमी की छुट्टियों में जब नानी के घर जाते थे
मामा के दोस्तों के साथ पतंगे उड़ाते थे
पड़ोस वाली दादी के साथ घंटो गप्पें लड़ाते थे
चौराहे वाले हरिया हलवाई से
समोसों के साथ जलेबियाँ फ़्री पाते थे

कॉलेज के रिश्ते थोड़े चटपटे थे
मेस में थी हमारी स्पेशल टेबल
लेकिन राज था तो मुन्ना महाराज का
“चुपचाप करेले खाइए। अच्छे होते हैं”
सचिन पुरानी शर्ट पे छेड़ता था
फिर कहता था
“साले! डेट पे जा रहा है? मेरी ले जा”
रोहन की ठंडाई में चुपके से भांग मिलाते थे
देर रात एक दूसरे को हॉरर स्टोरी सुनाते थे
और कभी-कभी… ख़ुद ही डर जाते थे

अधेड़ उम्र में रिश्तों के आयाम बदलते हैं
गली की लँगड़ी कुतिया जो दूर से दुम हिलाती है
चौराहे पे बूढ़ी भिखारन तुम्हें देख के मुसकाती है
एक कोयल जो बेवजह तुम्हारी छत पे गाती है
जगजीत की ग़ज़लें जो आज भी तुम्हें छेड़ जाती है
पत्नी रसोई में कोई पुराना गीत गुनगुनाती है
तुम्हारी बेटी जब ज़िद करती है, इठलाती है
ज़िंदगी तुम्हारी नमकीन हो जाती है

एक और स्वाद होता है रिश्तों का
वो पुरानी डायरी में दबा मोरपंख
मेज़ की दराज़ में तुम्हारा भूला हुआ ख़त
किसी का दिया हुआ वो मिक्सटेप
बारिश में उठती हुई वो मिट्टी की ख़ुशबू
पेड़ की छाल पे वो धुँधलाता हुआ नाम
ये रिश्ते तीखे होते हैं
जो आपके अधूरेपन का अहसास दिलाते हैं
आपकी भूख और बढ़ाते हैं
ज़ुबान पे एक टीस छोड़ जाते हैं

 

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