वो रोज़ाना नयी महफ़िलें सजाता है
यक़ीनन तनहाइयों में सोग मनाता है
उससे कहो इतनी बेचैनी अच्छी नहीं
हर रात मेरे ख़्वाबों में आता-जाता है
एक वो ज़माना था दोपहर भर सोते थे
अब तो ये मुआ चाँद रातभर जगाता है
मेरे आँसुओं की रंगत ही दिखायी देती है
जब अपनी अंगुश्त-ए-हिनाई दिखाता है
ये अफ़वाह है झूठी वो भूल गया हमको
सुना है वो आज भी हमारी ग़ज़लें गाता है
अपनी झूठी तहरीरें कहलाता है मुझसे
और मेरी तारीख़ को भी झूठ बताता है
कल तक मुलाजमत के करता था दावे
जो आज ख़ुद को शहंशाह बतलाता है
सारे जहाँ का दर्द जिसके शेरों में हो
एक बस वो ही ‘ओझल’ कहलाता है