बहुत ज़ियादा ख़ुशी रुला भी तो सकती है
बे-इंतेहा ग़म में हँसी आ भी तो सकती है
तुझे अपने खुदा होने पे गुमान है मगर
मौज-ए-तारीख तुझे भुला भी तो सकती है
फिर आया है साहिल नज़रों के दस्तरस
फिर कोई लहर मुझे बहा भी तो सकती है
जिसकी मासूमियत पे दिल निस्सार हुआ
उसकी चालाकी दिल दुखा भी तो सकती है
मेरे जलते घर का तमाशा देखने वालों
ये आग-ए-हवस तुम्हें जला भी तो सकती है
मेरे जिस्म में जो आग लगाई है तेरे लम्स ने
वो आग अपने बोसों से बुझा भी तो सकती है
ये माना मैं रूठा हूँ किसी छोटी सी बात पे
वो ज़रा मुस्कुरा के मुझे मना भी तो सकती है
हाँ वो नाराज़ बहुत है “ओझल” से मगर
उसकी कोई ग़ज़ल गुनगुना भी तो सकती है