अजब इज़्तिराब है समन्दर के सीने में

इक तूफ़ाँ पल रहा है फिर मेरे सफ़ीने में
अजब इज़्तिराब है समन्दर के सीने में

अब ना तुम हो, ना मय है ना सपने
तुम्हीं कहो भला क्या मज़ा ऐसे जीने में

इतना शदीद दर्द मेरे दिल में है निहाँ
नहीं मिलता क़रार बुतख़ाने में, मदीने में

कल रात तुम्हारे ख़्याल से हुई बेतरतीब
ज़िंदगी सजा रखी थी कितने क़रीने में

मुझे नहीं मंज़ूर ये रिवायतें, ये सलीके
मज़ा जो है छलकाने में, वो कहाँ है पीने में

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