रंग कितने बिखर जाते हैं शाम के साथ
दर्द भूले हुए याद आते हैं शाम के साथ
दिन भर साथ रहती है इक झूठी हंसी
सच्चे हैं गम चले आते हैं शाम के साथ
कोई साथ चलेगा भी कितनी दूर भला
हम भी ज़रा सुस्ताते हैं शाम के साथ
शमा उम्मीदों की बुझने लगती है औ’ हम
ओढ़ उदासी सो जाते हैं शाम के साथ
दिन भर जिनको तवज्जो नहीं मिलती
वही चिराग काम आते हैं शाम के साथ
तू भी याद आता है बेइंतिहां हमें जब
कोई ग़ज़ल गुनगुनाते हैं शाम के साथ
महक उठता है ये घर लोबान की तरह
जिस रोज़ दोस्त आते हैं शाम के साथ