शाम कोई और रंग दिखाएगी

क्या आज भी यूँ ही ढल जाएगी
या शाम कोई और रंग दिखाएगी

वो मेरी बाहों में है उसे ख़बर नहीं
थोड़ी देर में कितना कसमसाएगी

इसी उम्मीद पे इक उम्र गुज़ारी है
कभी तो उन्हें याद हमारी आएगी

मेरी तारीक रातों में ख़ुशबू तुम्हारी
एक जुगनू की तरह जगमगाएगी

वैसे तो उसकी वफ़ा पे यक़ीं है हमें
मजबूरी-ए-हयात बेवफ़ा बनाएगी

इससे बचके रहना ये दिल की आग
जो बढ़ गयी तो दुनिया जलाएगी

मेरे सामने ना आना खुदा के लिए
इक अफ़वाह शहर भर में जाएगी

तुझे कैसे बताऊँ मेरे महबूब-ए-नादाँ
ये प्यास बोसों से और बढ़ जाएगी

 

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