शाम उतरती है
पेड़ों की शाख़ों से
दबे पाँव झिझकती हुई
नदी के किनारों पे
थोड़ी उछलती हुई
पहाड़ी ढलानों से
ज़रा सा फिसलती हुई।
सुनाई देती हैं आवाज़ें
घर लौटते हुए
थके हुए पंछियों की
पार्क में खेलते
छोटे बच्चों की
पड़ोस में नोंक-झोंक करते
नव-विवाहित जोड़े की
रसोई में छनकते
छोटे-बड़े बर्तनों की।
आज का दिन भी गया
ज़िंदगी से जूझते हुए
ख़ुद से लड़ते हुए
ज़र्रा-ज़र्रा बिखरते हुए
क़तरा-क़तरा समेटते हुए।
बाल्कनी में बैठे हुए वो
कॉफ़ी के प्याले को
अपने होंठों तक लाता है
फिर बिना पिए ही
रुक सा जाता है।
शायद दिन भर की
समेटी हुई कड़वाहट
कॉफ़ी से मिटेगी नहीं
सहेजी हुई ये झुँझलाहट
आसानी से घटेगी नहीं
असफलता की बौखलाहट
दिल से हटेगी नहीं
ये लंबी उदास शाम
शायद यूँ कटेगी नहीं।
लम्बे क़दम बढ़ाती हुई
तेज़ी से दौड़ती हुई
अपने डैने फैलाती हुई
उसकी हार पे हँसती हुई
कटाक्ष से मुस्कुराती हुई
एक बार फिर उतरती है
शाम…