तू और मैं

था जहां में हर शख्स से कोमल मैं
तीर-ए-निगाह से यूं हुआ घायल मैं

छू गए हाथ अनजाने में तुझसे मेरे
और देर तक होता रहा बेकल मैं

कोई तौर मिलन का निकलता कैसे
प्यासा सहरा तू, था सूखा बादल मैं

तू किसी तेज़ रेल सी गुजरती रही
हाथ हिलाता रहा जैसे सिग्नल मैं

काश तू होती पुजारिन की मटकी
काश होता गंगा किनारे पीपल मैं

किसी दीपक में तेल की मानिंद
साथ तेरे रहा और रहा ओझल मैं

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2 thoughts on “तू और मैं”

  1. The third couplet is very nice. One question: in Urdu poetry is it more common to find several analagies within a single poem or to find a single metaphor that has been extended for the whole poem?

    • The former certainly. Respectable because, in a Ghazal, the various ash’aar (couplets) aren’t bound together by thought, but by form (rhyme & meter etc)

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