टुकड़ों में ज़िन्दगी – 1

हर भावना आहत
हर शब्द अकथित
हर द्वार पर एक दीपक
निस्तेज, अप्रज्ज्वलित

हर नगर की, हर डगर पे
बैठा एक मुसाफ़िर
शिथिल अंगों की जिसके
भाषा है पराजित

ढलते सूर्य का प्रकाश
होता जाता है मद्धम
आँखों में झाँकती निराशा
किंचित नहीं अप्रत्याशित

हृदय होता जाता है
मलिन, उदास, धूमिल
टुकड़ों में मिली ज़िंदगी
रही सदैव अपरिचित

 

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