घेर के शाम से बैठी हुई हैं
कुछ यादें ज़ेहन से लिपटी हुई हैं
अभी कुछ दूर है मेरा सितारा
ये तारीकियां क्यों सहमी हुई हैं
मेरी आँखों में न शोले न पानी
किन खयालात में डूबी हुई हैं
दर्द-ए-माज़ी और खौफ-ए-मुस्तक़बिल में
ये हसीं रातें क्यों उलझी हुई हैं
परवाज़ पे यूँ तो सबका है हक़
हर पाँव में बेड़ियाँ उलझी हुई हैं