दिल इसी सोच में है डूबा हुआ
तुम तो मसीहा थे, तुम्हें क्या हुआ
मुस्कुरा रहें हैं कोई देख ना ले
कहीं आँख से लहू रिसता हुआ
तुम तो ग़ैर थे, तुम्हें क्या कहते
कौन अपना था जो अपना हुआ
आख़िरी ख़्वाब था सो वो भी टूट गया
चलो ये एक काम भी अच्छा हुआ
कल शाम साहिल पे देखा था
इक दरिया आग का बहता हुआ
साहिब-ए-मंसब तक ये पैग़ाम पहुँचे
तख़्त हमेशा किसी का ना हुआ