तो क्या आज भी हमें कुछ नहीं कहना है ?
जो कुछ आप करें, उसे चुपचाप सहना है ?
अपने बदन से रिसते लहू के सुर्ख कतरों से
क्या आज भी हमें गिरेबां सीना अपना है ?
सुना है आपकी नज़रों में चुभने लगे हैं हम
हमने कब चाहा आपकी आँखों में रहना है ?
खींच दी है दिलों के बीच एक और लकीर
क्या हर इंसां को दूसरे से दूर ही रहना है ?
ज़ाहिर-ए-इख़्तिलाफ़ को ए’तिमाद चाहिए
नाक़ाबिल-ए-ऐतबार से और क्या कहना है?
शोर है हर-सू आपके ही जलवों का हुज़ूर
क्या हर ख़ामुशी को बग़ावत ही कहना है ?