शायद हमारे दरमियाँ और कुछ भी नहीं
एक दश्त-ए-बियाबाँ और कुछ भी नहीं
कल हसीन ख़्वाब थे विसाल के यहाँ
आज बिखरे हुए अरमाँ और कुछ भी नहीं
कुछ पल के लिए तेरे शानों पे फैली थीं
मेरी ज़ुल्फ़-ए-परीशाँ और कुछ भी नहीं
सागर-ओ-खुम हैं उलटे, साज़ भी चुप हैं
दिल बहलाने का सामाँ और कुछ भी नहीं
कश्ती-ए-हयात की हक़ीक़त है तो बस
मुसलसल बर्क़-ओ-तूफ़ाँ और कुछ भी नहीं
तेरी यादों की चाँदनी फैली है आँगन में
ऐसी हसीं शाम-ए-हिज्राँ और कुछ भी नहीं
इसकी तपिश से जल जाएगा जहाँ सारा
मेरा दर्द-ए-दिल मेरी जाँ और कुछ भी नहीं