शब-ए-हिजराँ

शब-ए-हिजराँ कुछ ऐसे बिताते हैं हम
तुम्हारे क़िस्से ख़ुद को सुनाते हैं हम
 
तुम मिले हो तो होश ही नहीं हमें
तुम्हारी ग़ज़लें तुम्हीं को सुनाते हैं हम
 
वक़्त की मजबूरियाँ, ज़माने का डर
आओ कुछ नए बहाने बनाते हैं हम
 
कभी-कभी उनसे आँखें चार होती हैं
फिर महफ़िल से नज़रें चुराते हैं हम
 
तनहाइयों में बज उठते हैं तार यादों के
फिर बहुत देर तक गुनगुनाते हैं हम
 
ये इल्म की बातें, ये किताबें अदब की
क्या जानो दिल को कैसे बहलाते हैं हम
 
इन आँसुओं पे ना जाओ, ये तो झूटे हैं
यक़ीं मानो अब भी मुस्कुराते हैं हम
 
तुम्हें अपनी ग़ज़लों में उतारते हैं यानी
अपनी रुसवायी का सामाँ बनाते हैं हम
 
तस्वीरें बनाते हैं, ग़ज़ल लिखते हैं ‘ओझल’
देखो एक शख़्स को कैसे भुलाते हैं हम

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