दुःख और दर्द में फ़र्क़ है इतना
दर्द पहाड़ी झरना है
शोर करता है
पत्थरों पे टूटता है
सब कुछ बिखेर देता है
दुःख
एक शांत नदी है
मद्धम स्वर में बोलती है
चलती है यूँ जैसे हो ही नहीं
मगर हर वक़्त होती है साथ
आपको घेरे हुए
बाहों में समेटे हुए
दर्द
अँधेरी रात में कमरे के बीच की
मेज से लगने वाली ठोकर है
घुटने छिल जाते हैं
नसें फड़कती हैं
चीख निकलती है
चोट जो लगती है
सबको दिखती है
दुःख एक खंजर है
अंतड़ियों में फंसा हुआ
जिसमें से रिसता है लहू
बरबस अनायास लगातार
आपकी शर्ट के रंग को गहराता हुआ
दुःख जब निकलता है जान निकलती है