एक ख़ामोशी ही दरमियान हो जैसे
हर रिश्ते की यही पहचान हो जैसे
साक़ी हमारे प्याले ख़ाली ही रहे
तू हमारी प्यास से अनजान हो जैसे
उसकी आँखों में हैं कितने सवाल
मासूम दिल का इम्तिहान हो जैसे
आज फिर शाम ढले टूटता है बदन
एक लम्बे सफ़र की थकान हो जैसे
मेरी ग़ज़लों पे क्यूँ हुईं आँखें नम
कोई आपकी ही दास्तान हो जैसे
सज़ा तो यूँ मिली उस बेगुनाह को
उसका कोई सच्चा बयान हो जैसे
नज़रें जो मिलीं तो मुस्कुराये ऐसे
आज भी हम पे मेहरबान हो जैसे
ज़रा सी चोट से मिसमार जो हुआ
ये दिल काँच का मकान हो जैसे
बहुत देर तक वो मुझे देखता रहा
मेरी बेवफ़ाई का गुमान हो जैसे
हाकिम-ए-शहर को सजदे तो यूँ
सुबह की पहली अज़ान हो जैसे